ग़ज़ल -दुष्यंत कुमार
ग़ज़ल
------- दुष्यंत कुमार
कहां तो तय था चिरांग, हरेक घर के लिए,
कहां चिरांग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहां दरख़्तों के साये में धुप लगती है,
चलो यहां से चले और उम्र भर के लिए।
न हो कमीज़ तो पांवो से पेट ढक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफर के लिए।
खुदा नहीं न सही, आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए।
तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की,
ये एहतियार जरूरी है इस शहर के लिए।
जिएं तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
---------- दुष्यंत कुमार
Comments
Post a Comment